ग़ज़ल 

रंगो बू  और  है  फूलों  का  सफ़र और  ही है,

बाग़ की जान है  गुलचीं की नज़र  और ही है।

कभी  गुलदस्ते  में  मंदिर  में  मज़ारों  में कभी,

फिर भी अंजाम की बस एक ख़बर और ही है।

 

ख़ुद पे भी अब तो भरोसा नहीं आता इक पल,

आईने  में   मेरे  अक्सों  की  डगर  और  ही हैं।

जिस्म  के  ज़ख्म  तो  भर  जाते हैं तदबीरों से,

रूह  के   दर्द   का   अंदाज़  मगर और  ही  हैं।

bunga Tulip final

यह  सियासत  की  ज़मीनों  से  उगी फसलें हैं,

जो  इधर और  ही  दिखती हैं उधर और ही है।

ज़ुल्म   सहते   हुए  ख़मोश  जो  रह  जाते  हैं,

ऐसे  बुज़दिल  की सभी शामों सेहर और ही है।

 

ज़ुल्म  के  बानी  सितमगार  तो  मर  जाते  हैं,

मर  के  जीने  की  अदाएं  व्  हुनर  और ही है।

अपने  महलात  में   पहरा   वो  बिठा  लेते  हैं,

जिन को  मालूम  नहीं  मौत का दर और ही है।

 

क्यों वफ़ादारी की महफ़िल को सजाए ‘मेहदी’,

बेवफ़ाओं की  मोहब्बत  का असर और ही है।

मेहदी अब्बास रिज़वी

  ” मेहदी हललौरी “