क़ल्बो ज़ेहन का हुस्न मोहब्बत का तक़ाज़ा,
इंसानियत की शान मुरव्वत का तक़ाज़ा।
शैतानियत के जाल में फंस जाता है जो भी,
करता वही है अपनों से नफ़रत का तक़ाज़ा।
नाफ़सों को पाक रखना है किरदार के लिए,
आबिद से सदा होता इबादत का तक़ाज़ा।
मशकूक नज़र तंगिये एहसास न बन जाये,
बस इक यक़ीन होता है हिकमत का तक़ाज़ा।
हैवान तो हैवान हैं क्या उन से शिकायत,
इंसानों से होता सदा फ़ितरत का तक़ाज़ा।
साँसों पे बिठाया गया है मौत का पहरा,
आओ गे मेरे पास है क़ुदरत का तक़ाज़ा।
औरों के एहतराम में हर सांस गुज़र जाये,
हर साहबे इज़्ज़त से है इज़्ज़त का तक़ाज़ा।
महलों के क़ैदी बन गए मिटटी को छोड़ कर,
कैसे भला वह समझें गे ग़ुरबत का तक़ाज़ा।