हर मोड़ पे इक ज़ख्म नया खाएं गे हम लोग,
इस दशते मुसीबत में जो रह जाएं गे हम लोग।
जब अज़्म के जौहर में अमल का ढले मंज़र,
हर ख़ून के दरिया से उबर जाएँ गे हम लोग।
हर राह पे बारूद का इक ढेर सजा है,
है ज़र्फ़ का जौहर तो गुज़र जाएं गे हम लोग।
नफ़रत की बही जाती है गुलशन में हवाएं,
फूलों में बसा खौफ़ है मर जाएँ गे हम लोग।
बाज़ाऱे ज़ुल्म की नहीं औक़ात नज़र में,
हंसते हुए मक़तल की तरफ़ जाएँ गे हम लोग।
हम हुस्ने आरज़ी की परस्तिश नहीं करते,
बस इश्के हक़ीक़ी से संवर जाएँ गे हम लोग।
हम हक़ के लिए जान गवाने को चलें गे,
अब अम्न ही महके गा जिधर जाएँ गे हम लोग।
बातिल की निगाहों में है बेचैन ख़्यालात,
इस फ़िक्र में डूबी हैं किधर जाएँ गए हम लोग।