दिल में ख़्वाहिश है कि बस जाऊं मैं अफ़सानों में, मेरा भी ज़िक्र छिड़े बज़्म में, मयख़ानों में

ग़ज़ल

दिल में ख़्वाहिश है कि बस जाऊं मैं अफ़सानों में,

मेरा   भी   ज़िक्र   छिड़े   बज़्म में,  मयख़ानों  में।

शह्र  की  बात  कभी  मुझ  से   नहीं  अब  करना,

मैं    सुकूं    पाता   हूँ   सहराओं   में  वीरानों   में।

 

इश्क़   पाकीज़ा  है  पाकीज़ा  ही   रहने  दो  उसे,

उस   को   ढूंढो   न   कभी  हुस्न  के  दीवानों  में।

राहे  उल्फ़त  में  सदा  प्यार   की   बरसात   हुई,

क्यों   उसे   ढूंढते   नफ़रत   के   गुलिस्तानों  में।

 

जाने   किस   सिम्त  से  आती   हैं  हवाएं  ऐसी,

कलियां  डर  डर के जिए जातीं  गुलस्तानों   में।

कैफ़ियत हिज्र की अलफ़ाज़ में   आती न कभी,

आह  घुट  घुट  के  है  मर  जाती शाबिस्तानों में,

 

शम्मा जलती  है  उजाला लिए  हर बज़्म में पर,

कोई  भी   जोश  नहीं   दिखता  है  परवानों  में।

काश  आ  जाता  कोई  प्यार  भरा  नग़मा लिए,

टूटे   ख़ामोशी   का   माहौल  सनम  ख़ानों   में।

 

सारी  दानाई   का   इनआम   मिले  गा  ‘ मेहदी ‘

तेरा  भी   नाम   लिखा   जाये    गा  नादानों  में।

मेहदी अब्बास रिज़वी

  ” मेहदी हाल्लौरी “

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