एक अनुभूति : रावण नामा 

 

रावण था विद्वान महापंडित प्रतापी,
दसों दिशा धरती पर्वत थी उस से काँपी।

देवताओं में हलचल थी संताप था फैला,
कोई पानी भरता कोई ढोता थैला।

 

शस्त्रालए में शस्त्रों का अम्बार लगा था,
तप ऐसा कि प्रभु ने सब कुछ स्वयं दिया था।

गर्जन से पाताल गगन भी थर्राता था,
रात्रि में सोया सूरज डर कर उग जाता था।

 

सोने का सिंघासन हम ने सुना बहुत है,
सपने में उन सिंघासन को बुना बहुत है।

पर रावण की लंका नगरी सोने की थी,
तनिक नहीं शंका ह्रदय में खोने की थी।

 

तप से शक्ती मिली उसे पर अज्ञानी था,
अहंकार का दास बना था अभिमानी था।

धन बल मस्तक पर उस के छाया रहता था,
ज्ञान खड़ा कोनों में ही रोया करता था।

 

पत्नी की अच्छी बातें भी नहीं था सुनता,
अहंकार के चलते अपना ही सर धुनता।

सीता हरण से ही उस। का प्रताप था खोया,
फ़सलें वही थी काटी जिस का बीज था बोया।

 

ज्ञान बिना शिक्षा कूड़ा करकट सी होती,
बिन पल्ला दीवारों में चौखट सी होती।

ज्ञान अगर होता स्त्री का मान भी होता,
पर नारी का ह्रदय में सम्मान भी होता।

 

शिक्षा ज्ञान के चक्षु न खोले तो बेमानी,
उस को लाल रंग सदा दिखता है धानी।

सावन के अंधों को हरियाली दिखती है,
उस के मन में लालच की सरिता बहती है।

 

विश्विद्यालय की डिग्री का मान बढ़ाओ,
ज्ञान के गहने से सज धज कर शान बढ़ाओ।

अज्ञानी की बात पे नर्तन करना छोड़ो,
अपने ज्ञान से बढ़ कर देश की धारा मोड़ो।

 

राम के आदर्शों की ज्योति घर में लाओ,
अपने ज्ञान का दीपक को घर घर में जलाओ।

कभी उजाला झूठ नहीं बोला करता है,
काली रातों की निद्रा खोला करता है।

 

सच का चोला पकड़ के अपने तन पर डालो,
मानवता की धड़कन को ह्रदय में पालो।

नारी के सम्मान में बसती मानवता है,
बुरे कर्म का महिमा मंडन दानवता है।

 

ज्ञान की बातें घर घर जा कर बतलाओं गे,
विश्व गुरु का सुन्दर सपना पा जाओ गे।

गर ऐसा न कर पाए तो फिर रावण हो,
कोई नहीं जग में बोले गा तुम पावन हो।

 

अपनी शिक्ष दिक्ष की जब अलख जगाओ,
विजयादशमी को फिर पुतला ख़ूब जलाओ।

RIZVI SIR

मेहदी अब्बास रिज़वी
” मेहदी हल्लौरी “