1-
नाख़ुदा डूब गया कश्ती बचाएं कैसे,
रस्मे उल्फ़त भला ऐसे में निभाएं कैसे।
कश्मकश जारी है पर राह नहीं दिखती है,
शम्मा तो बुझ गई महफ़िल को सजाएँ कैसे।
2-
नाउमीदी से सदा राह निकल कर आती,
रौशनी तोड़ के दीवार मेरे घर आती।
ज़ोरे बाज़ू को ज़रा दावते पैकार तो दो,
फ़तह हर सिम्त से तब देखना हंस कर आती।
3-
कोई ज़ालिम न बचा, और न बच पाये गा,
एक दिन उस का भी आये गा, चला जाये गा।
देखो मज़लूम की आहों का है तूफ़ान उठा,
इस का भी बाल फ़ज़ाओं में बिखर जाए गा।
मेहदी अब्बास रिज़वी
” मेहदी हल्लौरी “