ग़ज़ल …..

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जाने  क्यों  चैन  नहीं  देती  कोई  बात  मुझे,

ग़म  की आग़ोश  में  लेती  है हर  रात  मुझे।

अब  तो  तन्हाई  में  तन्हाई   चुराती  आँखें,

ज़िन्दगी  दे  गई इस  तरह की  सौग़ात मुझे।

कैसे  तहरीर  करूँ  वस्ल  की उन बातों  को,

याद  आती  नहीं अब  कोई  मुलाक़ात मुझे।

पैर  रखते  ही  ज़मीनों  पे  फिसल  जाता हूँ,

ठोकरें  देती  बरस  जाती   है  बरसात  मुझे।

घर  में  होते  हुए   बेघर   से  रहा   करते  हैं,

ज़ख्म पर  ज़ख्म दिए  जाते हैं हालात  मुझे।

सच की क़ीमत नही हां जान पे बन आती  है,

ज़हन में  आते  है डर  डर के  ख़्यालात मुझे।

आईना  देख  के  सब  ख़ुद  को सजा लेते  है,

आईना  भी  नहीं  दिखलाता  मेरी ज़ात   मुझे।

अपनों की  बस्ती  में जब  जशन  मनाने जाते,

रौनक़ – ए बज़्म में दिख जाती  हवालात मुझे।

कारवां जब चला ‘मेहदी’ की  क़यादत में कभी,

गर्द  में  लिपटी  नज़र  आती है    बारात  मुझे।

मेहदी अब्बास रिज़वी

  ” मेहदी हललौरी “