जिसने भी बाग़ में कलियों को खिलाया होगा,
उसने ही ख़ुशबू व् रंगत से सजाया होगा।
दख़ल इंसान के हाथों का नहीं है फिर भी,
नेक जज़बे के तहत् इन को बचाया होगा।
फूल खिलते हैं तो खिल उठता चमन का चेहरा,
क्या पता भंवरों ने सुर अपना मिलाया होगा।
मेरे धागे में पिरोने के लिए आ न सका,
उस की मजबूरी ने उस को तो रुलाया होगा।
मेरी महफ़िल में वो आते हैं अँधेरा लेकर,
जाने किस बज़्म में शम्मा को जलाया होगा।
मेरे ख़त डाल के तकिए में वो सोते होंगे,
इस तरह रस्में वफ़ा अपनी निभाया होगा।
मैं तो तन्हाई की आग़ोश में जी लेता हूँ,
भीड़ में किस तरह अपने को सुलाया होगा।
सोंच कर धड़कने रुक जाती हैं दिल की मेरी,
बारे ग़म किस तरह कांधों पे उठाया होगा।
अहदे माज़ी की हर इक बात नज़र में है मेरी,
क्या पता उस ने मुझे कैसे भुलाया होगा।