समलैंगिकता अब अपराध नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने IPC 377 मामले में बड़ा फैसला

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सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में बड़ा फैसला सुनाया है। इसी के साथ कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध करार देने वाली आईपीसी की धारा 377 के कुछ प्रावधानों को खत्म कर दिया है | समलैंगिकता अब अपराध नहीं है, कोर्ट ने कहा कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है। देश में सभी को समानता का अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने फैसले में कहा कि देश में सबको सम्मान से जीने का अधिकारी है। समाज को अपनी सोच बदलने की जरूरत है। पुरानी धारणाओं को छोड़ना होगा। हालांकि कोर्ट ने पशुओं से संबंध को अपराध की श्रेणी में रखा है।

 

 

समलैंगिकता का इतिहास
समलैंगिकता का उल्लेख कई प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। वात्सायन द्वारा लिखे गए कामसूत्र में बाकायदा इस पर एक अध्याय लिखा गया है।
कानून: समलैंगिकता के खिलाफ अंग्रेजों ने धारा 377 को 1860 में लागू किया था। 158 साल पुराने इस कानून के द्वारा समलैंगिकता को गैरकानूनी बताया गया है।

 

पहला मामला: अविभाजित भारत में वर्ष 1925 में खानू बनाम सम्राट का समलैंगिकता से जुड़ा पहला मामला था। उस मामले में यह फैसला दिया गया कि यौन संबंधों का मूल मकसद संतानोत्पत्ति है लेकिन अप्राकृतिक यौन संबंध में यह संभव नहीं है।

मुखर होता आंदोलन: 2005 में गुजरात के राजपिपला के राजकुमार मानवेंद्र सिंह ने पहला शाही ‘गे’ होने की घोषणा की।

 

एलजीबीटी: लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर का यह संक्षिप्त रूप है। बीसवीं सदी के आखिरी दशक की शुरुआत में यह संक्षिप्त नाम इस समुदाय की पहचान बनता चला गया।

 

 

2013 के अपने ही फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने पलटा सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के साथ ही दिसंबर 2013 को सुनाए गए अपने ही फैसले को पलट दिया है। सीजेआई दीपक मिश्रा के साथ जस्टिस आरएफ नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा की संवैधानिक पीठ ने 10 जुलाई को मामले की सुनवाई शुरु की थी और 17 जुलाई को इस पर फैसला सुरक्षित रखा था।

 

 

धारा-377 पर अब तक का फैसला:

2009 – दिल्ली हाई कोर्ट ने अपराध के दायरे से हटाया

2013 – सुप्रीम कोर्ट ने दोबारा अपराध घोषित किया

2016 – अब तक -377 के खिलाफ 30 से ज्यादा याचिका दर्ज

2017 – सुप्रीम कोर्ट ने सेक्ससुअलिटी को निजता का अधिकार माना

2018 – सुप्रीम कोर्ट का फैसला समलैंगिकता अपराध नहीं

 

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जस्टिस दीपक मिश्रा, एएम खानविलकर:
मौजूदा समय में जब दुनिया में शादी को भी सन्तानोत्पत्ति से नहीं जोड़ा जा सकता है, तो दो वयस्कों के बीच सहमति से बनाए गए समलैंगिक या विपरीत सेक्स के संबंधों पर अप्राकृतिक यौनाचार का ठप्पा लगाने पर सवाल उठता है। सामाजिक नैतिकता की आड़ में किसी के अधिकारों की कटौती की अनुमति नहीं दी जा सकती।

 

 

जस्टिस आरएफ नरीमन:
भारत सरकार इस फैसले के व्यापक प्रचार के लिए जरूरी कदम उठाए। इसका रेडियो, प्रिंट और ऑनलाइन मीडिया पर नियमित अंतराल से प्रचार किया जाए। एलजीबीटी समुदाय के साथ जुड़े कलंक और भेदभाव को खत्म करने के लिए कार्यक्रम बनाए जाएं। इसके अलावा सभी सरकारी अधिकारियों, पुलिस अधिकारियों को जागरूक और संवेदनशील बनाने का प्रशिक्षण दिया जाए।

 

 

इंदू मल्होत्रा:
इतिहास एलजीबीटी समुदाय और उनके परिवारों के लोगों के दशकों तक अपमान और बहिष्कार सहते रहने और उन्हें न्याय देने में देरी के लिए क्षमा प्रार्थी है। इस समुदाय के लोग भय और अभियोजन के माहौल में जीने को मजबूर हुए। ऐसा सिर्फ बहुसंख्यक समुदाय इस बात से अनभिज्ञ रहने के कारण हुआ कि समलैंगिकता प्राकृतिक प्रवृत्ति है।

 

 

जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़:
158 साल पुराने अंग्रेजों के जमाने के कानून में सहमति से दो वयस्कों के बीच बनाए गए समलैंगिक संबंध को अपराध माना गया था। कानून ने उनके सामान्य मानवीय अधिकारों को नकार दिया था। प्रेम के मानवीय स्वभाव को पिंजरे में कैद कर दिया गया। भारत के आजाद होने के सात दशक बाद भी धारा 377 में यह अपराध के तौर पर शामिल रहा।

Section-377-SC

स्वामी ने कहा कि यह फैसला अंतिम नहीं है और इसे बदला जा सकता है | सीएनएन-न्यूज18 से स्वामी ने कहा, “सुप्रीम कोर्ट का आज दिया गया निर्णय अंतिम नहीं है | इसे निर्णय को सात जजों की बेंच द्वारा पलटा जा सकता है |” उन्होंने आगे कहा कि इस निर्णय से सामाजिक बुराइयों में वृद्धि हो सकती है | उन्होंने दावा किया कि इससे यौन संक्रमित बीमारियों में वृद्धि होगी | सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी स्वामी ने समलैंगिकता को ‘जेनेटिक डिसऑर्डर’ बताया |