ग़ज़ल : उस उस के इंतिज़ार में यह शामो सेहर है, जिन के दिलों में इश्क़ की ख़ुशबू का असर है

हर राज़े कायनात है बिखरा हुआ मगर,
दिखता वही है जैसा अमल जैसी नज़र है।

रोज़े अज़ल से मंज़िले मक़सूद दिख रही,
क्यों खौफ़ के दरियाओं में जारी ये सफ़र है।

 

महबूब की मर्ज़ी में जो उठ. जाता है क़दम,
वह इंतिहाये इश्क़ में बे खौफ़ो ख़तर है।

तूफ़ान ने समझा कि सभी फूल मर गए,
रंगत नहीं तो क्या हुआ ख़ुशबू तो अमर है।

 

इन बहकी हवाओं पे यक़ी आये तो कैसे,
कल तक जो पास मेरे था वह आज उधर है।

इक वारे तबस्सुम से ही बेचैन हो गये,
काँटों से भरी प्यार की ये राहगुज़र है।

 

नाकामियों से इतना न घबराइए हुज़ूर,
जैसे शजर लगाये थे वैसा ही समर है।

यह ख़ाम ख़्याली है कि ‘मेहदी’ है सुख़नवर,
न उस में सलीक़ा है न ही कोई हुनर है।

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मेहदी अब्बास रिज़वी
” मेहदी हललौरी “