न जाने कब से मुझे आज़माए जाते हैं,
झुका झुका के नज़र मुस्कुराये जाते हैं।
वो कोई बस्ती हो सेहरा हो या हो घर आँगन,
दयारे इश्क़ में ठोकर ही खाये जाते हैं।
अजब है आलमे तन्हाई दास्तां तेरी,
जनाज़ा अपना ही ख़ुद से उठाये जाते हैं।
ये इंक़लाबे ज़माना है या अदा उन की,
मुझे ही मेरा फ़साना सुनाए जाते हैं।
हवा के झोंके शरारत में खेल कर कर के,
हटा के ज़ुल्फ़ों को चेहरा दिखाये जाते हैं।
जो दिल की बात कभी चश्मे तर में आ जाती,
पलक पे अश्कों के मोती सजाए जाते हैं।
जो दिल में दर्द की चिंगारी और धुआं भर दे,
हमारे सामने वह गीत गाये जाते हैं।
ज़माना कुछ भी कहे मैं वही हूँ जो कल थे,
हर एक वादे को दिल से निभाए जाते हैं।