रीडर टाइम्स न्यूज़ डेस्क
आपको बता दें कि दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक मेले महाकुंभ का आयोजन प्रयागराज में गंगा और यमुना के संगम पर 13 जनवरी से 26 फरवरी तक होगा। 45 दिनों तक चलने वाले महाकुंभ के दौरान कुल 6 शाही स्नान होंगे।
👉पहला शाही स्नान 13 जनवरी को होगा।
👉 दूसरा शाही स्नान 14 जनवरी को मकर संक्रांति पर होगा।
👉 तीसरा स्नान 29 जनवरी को मौनी अमावस्या पर होगा।
👉 चौथ शाही स्नान 2 फरवरी को बसंत पंचमी पर होगा।
👉 पांचवा शाही स्नान 12 फरवरी को माघ पूर्णिमा पर होगा।
👉 आखिरी शाही स्नान 26 फरवरी को महाशिवरात्रि पर होगा उम्मीद है कि इस बार महा कुंभ में देश-विदेश के 40 करोड़ से ज्यादा लोग भाग लेंगे।
महाकुंभ विस्तार –
कहते हैं कि युगों पहले अमृत की खोज में अगर को मथा गया। अमृत निकला लेकिन इसे लेकर उन दो दलों में भीषण युद्ध हो गया। जिन्होंने इसे पाने के लिए जी तोड़ मेहनत की थी। इसमें एक ओर थे देवता और दूसरे थे दानव समुद्र मंथन में तमाम रतन के साथ हलाहल विष निकला जिसे भगवान शंकर ने अपने कंठ में धारण कर लिया। इसी वजह से वह नीलकंठ कहलाए और फिर आखिर में भगवान धन्वंतरि अमृत कलश लेकर समुद्र से बाहर निकले। देव और दानव दोनों ही अमृत पीना चाहते थे। अमृत पानी के लिए देव दानव के बीच जिन झपट हुई और इसी छीना झपटी में अमृत कलश कई बार छलका और अमृत कर अलग-अलग स्थान पर जा गिरा। वो चार स्थान जहां अमृत गिरा वह है। प्रयाग , हरिद्वार, उज्जैन और नासिक मान्यता है कि , तभी से इन चारों स्थान पर कुंभ मेले का आयोजन हो रहा है। कुंभ मेलों का आयोजन एक प्राचीन परंपरा है। जो इन्हीं चार प्रमुख तीर्थ स्थलों पर आयोजित होते हैं महाकुंभ 2025 का आयोजन इस बार उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में हो रहा है। कुंभ को लेकर सवाल कई है। कुंभ मेला क्यों लगता है कुंभ कितने तरह के होते हैं कुंभ की तिथि कैसे तय होती है। कुंभ कहां होगा इसका पता कैसे चलता है और हजारों साल पहले कैसा था कुंभ तो लिए इन सभी के बारे में जानते हैं।
क्या हैं महाकुंभ –
कुंभ संस्कृत भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है कलश ,कुंभ चार प्रकार के होते हैं। कुंभ ,अर्ध कुंभ , पूर्ण कुंभ और महाकुंभ इनमें कुंभ का आयोजन हर 4 साल में एक बार होता है। अर्ध कुंभ का आयोजन 6 साल में एक बार। पूर्ण कुंभ का आयोजन 12 साल में एक बार और महाकुंभ का आयोजन 144 सालों में एक बार होता है। तो इस बार प्रयागराज में इस महाकुंभ का आयोजन हो रहा है। यह 144 वर्षों में एक बार हो रहा है। और इसके पीछे वैज्ञानिक आधार भी है। पूर्ण कुंभ 12 साल में एक बार इसलिए होता है क्योंकि ,जुपिटर यानी बृहस्पति ग्रह को सूर्य का एक चक्कर लगाने में लगभग 12 वर्ष लगते हैं। लेकिन जब 12 पूर्ण कुंभ 144 वर्षों में पूरे होते हैं। तो इस योग पर महाकुंभ का आयोजन होता है। और इस बार भी प्रयागराज में यही महाकुंभ हो रहा है। प्रयागराज को त्रिवेणी भी कहते हैं। क्योंकि यहां गंगा , यमुना और सरस्वती नदी का संगम है। सरस्वती नदी को लेकर यह मान्यता है कि यह अभी धरातल के नीचे बह रही है और इस त्रिवेणी में महाकुंभ के दौरान डुबकी लगाकर स्नान करना सबसे पवित्र माना जाता है। अर्ध कुंभ की बात करें तो अर्ध यानी आधा दो कुंभ के बीच 6 वर्ष के अंतराल में अर्ध कुंभ का आयोजन होता है। यह हरिद्वार और प्रयागराज में होता है। पूर्ण कुंभ की बात करें तो हर 12 साल में लगने वाले कुंभ मेले को पूर्ण कुंभ कहा जाता है। इस मेले का आयोजन प्रयागराज हरिद्वार उज्जैन या नासिक में होता है। ज्योतिषीय गणना के आधार पर पूर्ण कुंभ के स्थान का निर्णय किया जाता है। आपने सिंहस्थ का नाम भी सुना होगा। नासिक और उज्जैन में कुंभ मेले का आयोजन जिस समय होता है। तब सिंह राशि में बृहस्पति और मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होता है। इसे सिंहस्थ कहते हैं। ग्रहो की यह स्थिति 12 वर्षों में एक बार होती है। इसलिए यह मेल भी 12 सालों में एक बार लगता है। असल में कुंभ हर 3 साल में रोटेशन में आयोजित होते रहते हैं। और एक स्थान पर कुंभ होने के बाद अगली बार इस स्थान पर आयोजन का यह चक्र 12 वर्षों बाद ही आता है।
कैसे तय होता हैं कुंभ का स्थान –
कुंभ मेला का स्थान तय करने में सूर्य चंद्रमा और बृहस्पति ग्रहों की स्थिति महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जब सूर्य और चंद्रमा मकर राशि में होते हैं और बृहस्पति वृषभ राशि में होता हैं। तब कुंभ मेला प्रयागराज में आयोजित होता है। वही जब सूर्य मेष राशि में और बृहस्पति कुंभ राशि में होता हैं। तो कुंभ मेला हरिद्वार में आयोजित होता है। इसके साथ ही जब सूर्य सिंह राशि और बृहस्पति ग्रह भी सिंह राशि में होते है। तो कुंभ मेला उज्जैन में होता है। आखिर में जब सूर्य सिंह राशि और बृहस्पति सिंह या कर्क राशि में होता है। तब कुंभ मेला नासिक में आयोजित किया जाता है।
क्या हैं कुंभ की कथा –
यह कुंभ और महाकुंभ के आयोजन की सामान्य जानकारी है। जिसके आधार पर कुंभ मेलों का आयोजन होता है। लेकिन असल में यह अधूरा तथ्य है। पूरा नहीं पूरी बात जानने के लिए फिर से युगों पुरानी इस कथा की ओर चलना होगा। जहां से महाकुंभ मेले की जमीन तैयार हुई थी। हुआ यू की समुद्र मंथन से जब 14 रत्न निकले तो सबसे आखरी में अमृत कुंभ प्राप्त हुआ इस आयुर्वेद के जनक धनवंतरी देव अपने हाथों में लेकर समुद्र से बाहर निकले थे। इस अमृत कलश को लेकर देवताओं और दोनों के बीच युद्ध हुआ तब दोनों ने देवताओं को हराकर अमृत कलश को अपने पास रख लिया था देवताओं को डर था कि अगर दानवों ने इस अमित को पी लिया तो वह अमर हो जाएंगे। इसके बाद उन्होंने भगवान विष्णु से मदद मांगी और भगवान विष्णु ने दोनों को विचलित करने के लिए स्त्री का रूप धारण किया। उनके इस अवतार को मोहिनी अवतार कहा जाता है। राक्षसों से अमृत कलश को प्राप्त करने के लिए देवताओं ने भगवान इंद्र के पुत्र जयंत से भी मदद मांगी और जयंत को कौवे के रूप में राक्षसों से अमृत कलश लाने के लिए भेजा गया। इस अमृत कलश की रक्षा करने के लिए उसके साथ चार और देवता इनमें चंद्र देव को अमृत कलश की रक्षा करनी थी। सूर्य देवता को इस कलश को टूटने से बचाना था। देवगुरु बृहस्पति को राक्षसों को रोकना था। और शनि देव को जयंत की निगरानी करनी थी। ताकि वह कलश से सारा अमृत खुद ही नवी जाए। जब जयंत कौवे का रूप धारण करके राक्षसों से अमृत कलश को वापस लेकर आ रहे थे। तब हुए संघर्ष में अमृत की चार बंदे पृथ्वी पर कर अलग-अलग स्थान पर गिर गई। यह चार स्थान थे हरिद्वार प्रयाग नासिक और उज्जैन। अमृत की बूंदे गिरते ही यह चारों स्थान हमेशा के लिए पवित्र हो गए। मान्यता हैं कि , तभी से इन चारों स्थान पर कुंभ मेले का आयोजन हो रहा है। माना जाता है की कुंभ मेले के दौरान पवित्र स्नान करने से सारे पाप धुल जाते हैं।
हजारो साल पहले का महाकुंभ – जाने कैसे होता था ?
पौराणिक कथा तो आपने सुन ली लिए अब जानते हैं कि भारत में कुंभ का इतिहास कितना पुराना है। कहां जाता है कि आदि गुरु शंकराचार्य ने छठी शताब्दी ईसा पूर्व में कुंभ को लोकप्रिय बनाना शुरू किया था। इसके बाद सदियां बीती गई। और कुंभ का वैभव बढ़ता गया। कुंभ मेले की यह परंपरा सदियों पुरानी हैं। लेकिन लिखित साक्षी की बात करें तो सदियों पहले से यहां आने वाले विदेशी यात्रियों ने भी अपने संस्मरणों में कुंभ के बारे में लिखा है। चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में यूनानी इतिहासकार और राजनीतिक मेगास्थनीज राजा चंद्रगुप्त के दरबार में राजदूत के रूप में आए मेगास्थनीज को हेलेनिस्टिक किंग सेल्यूकस एक ने मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त के पास भेजा था । तब वह कुंभ मेले में गए थे। जिसका वर्णन उन्होंने अपनी पुस्तक इंडिका में किया था उस समय यूनानी दुनिया में भारत के बारे में ज्ञात सबसे विस्तृत विवरण इसी किताब में था। मेगास्थनीज अकेले नहीं है जिन्होंने कुंभ के बारे में लिखा था मेगास्थनीज के बाद 644 ई यानी करीब 1400 साल पहले चीन के एक बौद्ध पेंशन ने भारत की यात्रा की और अपनी यात्रा के दौरान वह सम्राट हर्षवर्धन के साथ प्रयाग कुंभ का साक्षी बना। उसने अपनी किताब में इस भव्य मेले को सदियों लंबे उत्सव के तौर पर लिखा था वह सामने प्रयागराज को मूर्ति पूजा का महान शहर बताया था। उसने लिखा था कि देशभर के शासन धार्मिक पर्व में दान देने प्रयाग आते थे। संगम किनारे स्थित पातालपुरी मंदिर में एक सिक्का दान करना हजार सिक्कों के दान के बराबर पुण्य वाला माना जाता है। प्रयाग में स्नान सभी पाप धो देता है। प्रयाग में इस आयोजन के दौरान राजा हर्षवर्धन की उदारता के बारे में बताते हुए। उसने लिखा था कि राजा ने अपनी संपत्ति जनता को दान कर दी थी। 1655 से 1717 ई तक भारत की यात्रा करने वाले इतालवी यात्री निकोलाओं मन्नू जी ने प्रयाग में हर 5 साल में होने वाले उत्सव के बारे में लिखा है। कुंभ मेले के नाम से सबसे पहले उल्लेख 1695 ईस्वी में फारसी अभिलेख खुलसतवारिक में और 1759 ईस्वी में चार गुलशन में मिलता है। जिनमें हरिद्वार प्रयागराज और नासिक में होने वाले मेलों के बारे में बताया गया है। हुलसतवारिक में मुगल साम्राज्य का इतिहास है जिसे सूजन राय ने लिखा था इसमें कुंभ का विस्तृत वर्णन मिलता है जिसमें मेलों के वार्षिक चक्र और उनके ज्योतिषीय महत्व के बारे में जानकारी दी हुई है। कुंभ मेले का संदर्भ 1834 में बहादुर सिंह द्वारा लिखे यादगार बहादुर में भी मिलता है । जिसमें कहा गया है कि अंग्रेजों द्वारा तीर्थ यात्रियों पर कर लगा देने के कारण उसे साल मेले में आए लोगों की संख्या में बहुत कमी आई थी।